आनंदपाल के शव पर सियासी सियारों की सियासी चालें

फिर वही दोहराव फिर वही नेतृत्व की अन्धी होड़,समाज और स्वाभिमान जाये भाड़ में ,अजीब लोग अपने निजी हितों का साधने के लिये क्या क्या हथकंडे अपनाते है यह सियासतों  के सौदागर।एक इंसान पिछले दस दिनों से बर्फ में लगा पड़ा है और तरस रहा है अपनी अंतिम शव यात्रा के लिए।लेकिन यह शवों के सौदागर और स्वस्वार्थी स्वयं के हितों की प्राण प्रतिष्ठा की साधना में लीन नज़र आ रहे है।कोई सियासत के गलियारों में नतमस्तक होकर अपनी उपस्थिति को मजबूत करने को जुट हुआ है तो कोई अपनी नई युवा पीढ़ी की सियासत की प्रीलॉन्चिग् में जूटा हुआ है।बुजर्गों से शवों पर सियासत का जुमला सुना था लेकिन वर्तमान में आँखों से देख भी लिया की किस तरह यह सियासी दानव अपनी सियासी मृगतृष्णा को शांत करने के लिए मृत शवों पर सियासत का सोपान करते है।24 जून की अवास्या की काली रात से लेकर आज तक हर एक हुकुमरान सियासत का ताना बाना बुनकर तमगांधारी बनने को आतुर है। पिछले दस दिनों से सियासत और सामाजिक चौसर की शह मात का ऐसा घृणित सियासी खेल खेला जा रहा है जिसमे स्तेमाल हो रहा है समाज का वो भोला भाला युवा वर्ग जिसके दिल में धड़कनो की जगह रजपुती धड़कती है । जो हर उस शख्स के लिए कुर्बान होने को आतुर रहती है जिसके आगे पीछे रजपुती इंगित हो।लेकीन इस सम्पूर्ण वृतांत में शकुनियों की भी कमी नहीं है जो अपनी शातिर  चालों से इस चौसर का पासा पलटने में माहिर है।उनके के लिए कौम का स्वाभिमान और प्रतिष्ठा कोई मायने नहीं रखते है।अपने मृत प्रयाय सियासी स्थूल में सियासत की साँसे प्रवाहित करने के लिए इंनको किसी भी हद कर  गिरने में कोई गुरेज नहीं होती है।कहा जाता है की  सियासत एक ऐसा खेल है जिसमे अपनों की बलि भी स्वीकार्य है।यहाँ न कोई अपना है ना कोई पराया।

पिछले दस दिनों के घटनाक्रम की कड़ी से कड़ी जोड़कर देखा जाये तो आनंद की चौखट पर अपने माथा पटकने वालों में ऐसे ऐसे  चेहरे नज़र आ रहे है जिनकी कल्पना स्वप्न में भी स्वीकार्य नहीं हो सकती लेकिन यह सियासी गिद्ध आनंद के मृत शरीर पर सहानुभूति के दो टेसुये बहा कर अपनी सियासी पिपासा को शांत करने के लिए अब इर्द गिर्द मंडराना आरम्भ कर चुके है।विडंबना देखिये जिस मृत स्थूल से यह अपनी सियासी पिपासा को शांत करना चाहते है इन्होंने इसके जीवित स्पंदन में समाहित जीवित तत्व को कभी स्वीकार्यता की मान्यता प्रदान नहीं की।आज वो मृत गजराज उनको उनकी सियासी संजीवनी से ओतप्रोत नज़र आ रहा है।यह दुर्भाग्य ही की जिस कौम के लोग कभी मौत वरण को आतुर रहते थे,पड़ोसियों के शोक से खुद शोकाकुल हो जाते थे। आज उसी कौम के कुछ स्वार्थी लोग शवों के सौदागर बन बैठे है।ऐसे ऐसे घृणित कृत्यों को अंजाम दिया जा रहा है की मृत शरीर को नौचने वाले गिद्ध भी शर्मसार हो जाएँ।पिछले दस दिनों की सियासी और सामाजिक उथल पुथल में जहां एक और सामजिक एकता और अखण्डता की आवश्यता है वहीँ दूसरी और कुछ चोर चौकड़िया अपने सियासी स्पंदन की प्राध्वनी को स्पन्दित करने के  लिए सियासी सौदगरी में मगसूल है।इस बात को सहर्ष स्वीकार करने में कदापि गुरेज नहीं होना चाहिए की जुर्म की दुनिया जिरह की जमीन पर प्रफुलित होती है जहां मानवीय मूल्य जड़ शून्य हो जाते है और एक अच्छा खासा इंसान दानव में परिवर्तित हो जाता है लेकिन  ऐसे भी कई उदाहरण मिल जायेंगे  जिन से यह सिद्ध होता है की जुर्म की दुनिया का भटका हुआ राहगीर भी मानवीय मूल्यों की राह पर वापस लौटकर आ सकता बस आवश्यकता है तो ईमानदारी से प्रयास की । आज हजारों का हुजूम जो पिछले दस दिनों से जिस दहलीज की नुमाइन्दगी कर रहा है,जिस सरजमी पर आज वाहनो की कतारें लग रही है अगर वक्त रहते उचित प्रयास किये जाते तो आज उस दहलीज का वो बाल्मीकि अपने जुर्म का मटमैला चौला उतार कर फिर मानवीय मूल्यों का पाक साफ़ चौला धारण जीवन की रामायण का एक नया अध्याय लिख सकता था लेकिन समाजिक उपेक्षाओं और सियासत की शातिर चालों ने पप्पू को पाप ले दलदल में धकेल कर एक ऐसे शख्स को जन्म दे दिया जिसका रोना उसके परिवार के साथ साथ समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग रो रहा है। जिसका दिल सिर्फ और सिर्फ रजपुती के लिए धड़कता है ना की किसी मुजरिम के लिए।
सादर
कुँवर नादान

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