कच्छवाहा नरूका -मत्सय नगर(अलवर)साम्राज्य

कच्छवाहा नरूका -मत्सय नगर(अलवर)साम्राज्य।

प्रताप सिंह का साम्राज्य विस्तार -
भाग- द्धितीय

सन् १७७३ में उसने काँकवाड़ी, अजबगढ़, बलदेवगढ़ आदि स्थानों में गड़िया बनवाई तथा अपनी शक्ति और राज्य विस्तार में लगा रहा। नजफ खाँ का भरतपुर पर द्वितीय आक्रमण और प्रताप सिंह की नजफ खाँ को सहायता (१७७४)।

मिर्जा नजफ खाँ ने भरतपुर पर द्वितीय आक्रमण १७७४ में किया। उस समय प्रताप सिंह ने मिर्जा नजफ खाँ की सहायता की। जिसके फलस्वरुप भरतपुर की सेना को आगरा का दुर्ग छोड़ने के लिए विवश होना पड़ा। इस सहायता के उपलक्ष्य में मिर्जा नजफ खाँ ने मुगल बादशाह शाह आलम (द्वितीय) से अनुरोध कर सन् १७७४ में उसको ""राव राजा बहादुर'' की उपाधि, पंच हजारी मनसब (पाँच हजार जात और पाँच हजार सवार और माचेड़ी की जागीर) दिलवाई। इस प्रकार प्रताप सिंह को मुगल बादशाह शाह आलम ने एक स्वतंत्र राजा के रुप में स्वीकार कर लिया और उसकी माचेड़ी की जागीर हमेशा के लिए जयपुर से स्वतंत्र कर दी।इसके पश्चात् १७७५ में प्रताप सिंह ने प्रतापगढ़, मुगड़ा व सेन्थस आदि स्थानों में गढ़ बनवाये।

अलवर राज्य की स्थापना २५ दिसम्बर १७७५

इस प्रकार प्रताप सिंह एक स्वतंत्र शासक बन गया। उसने अब आसपास के प्रदेश पर अधिकार करना शुरु किया जिससे उसके राज्य का विस्तार हो सके। इस नीति पर चलते हुए उसने सबसे पहले अलवर के प्रसिद्ध किले पर अधिकार किया। इस समय अलवर का दुर्ग भरतपुर के अधिन था, लेकिन भरतुप नरेश की इस गढ़ की ओर कुछ उपेक्ष दृष्टि थी। दुर्गाध्यक्ष और सैनिकों को बहुत समय से वेतन नहीं मिला था, इससे उनमें असंतोष, अशान्ति फैल गई थी। उन्होंने वेतन के लिए अनेक बार भरतपुर नरेश से प्रार्थना की, लेकिन उसने उनकी प्रार्थना पर कोई ध्यान नहीं दिया।

अन्त में दुर्ग के रक्षकों ने निराश होकर भरतपुर नरेश को एक मर्मस्पर्शी भाषा में अपना अन्तिम प्रार्थना पत्र लिख भेजा। जिसमें उन्होंने उससे अपने आर्थिक कष्ट जनित असंतोष को खुले शब्दों में प्रकट किया। अपने स्वामी से अपना हार्दिक भाव प्रकट कर स्वामी भक्त रक्षकों ने वास्तव में अपने कर्त्तव्यों का यथोचित पालन किया था, परन्तु हृदयहीन भरतपुर नरेश पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। भरतपुर नरेश की उदासीनता से झुंझलाकर अपने निर्वाह एवं प्राण रक्षा हेतु उन्होंने प्रताप सिंह को इस आश्य का प्रार्थना पत्र भेजा कि यदि वह उन लोगों का वेतन चुकाना स्वीकार करें, तो वे अलवर के दुर्ग उन्हें समर्पित करने के लिए प्रस्तुत हैं। प्रताप सिंह ने उनकी प्रार्थना को सहर्ष स्वीकार किया और खुशालीराम की सहायता से रुपयों की व्यवस्था कर उनका और उनके सैनिकों का वेतन चुका दिया।

खुशालीराम तथा अपनी सेना के साथ प्रताप सिंह ने मार्ग शीर्ष शुक्ला ३ संवत् १८३२ (२५ दिसम्बर, १७७५) सोमवार को अलवर के दुर्ग में प्रवेश किया और माचेड़ी के स्थान पर अलवर को ही अपनी राजधानी बनाकर अलवर राज्य की स्थापना की और अपनी राज्याभिषेक कराया। प्रताप सिंह अलवर के दुर्ग पर शासन करने के साथ-साथ बानसूर, रामपुर, हमीरपुर, नारायणपुर, मामूर, थानेगाजी आदि स्थानों पर भी प्रताप सिंह ने अधिकार कर लिया। इनमें से प्रत्येक स्थान पर दुर्ग का निर्माण करवाया। इसी प्रकार जामरोली, रेनी, खेडजी, लालपुरा आदि अन्य स्थानों पर भी उसने अधिकार कर दुर्ग बनवायें। प्रताप सिंह के सभी सम्बन्धियों, मित्रों तथा जाति वालों ने उसे अपना मुखिया और राजा स्वीकार कर लिया और सभी ने उसको उपहार स्वरुप भेंट दी।

प्रताप सिंह की प्रारम्भिक समस्याएँ

प्रताप सिंह के सामने कई आन्तरिक समस्याएँ आयी, जिनका समाधान उन्होंने बड़ी बुद्धिमत्ता और साहस के साथ किया। उनकी प्रारम्भिक समस्याएँ निम्न लिखित थीं-

प्रथम अलवर के किले एवं अन्य स्थानों पर अधिकार हो जाने के बाद भी लक्ष्मणगढ़ के दासावत नरुका सरदार स्वरुप सिंह ने न तो उसकी राजसत्ता स्वीकार की और न ही उसे भेंट दी। इसलिए प्रताप सिंह ने उस पर चढ़ाई कर दी। जिसका समाचार पाकर वह अपना गढ़ छोड़कर भाग गया। प्रताप सिंह के सैनिकों ने उसका पीछा किया। अन्त में वह पकड़कर अलवर लाया गया। वह ऐसा हठी व दुराग्रही था कि लोगों के समझाने पर भी अपनी बात पर अड़िग रहा और उसने प्रताप सिंह की अधिनता स्वीकार नहीं की। इसका फल उसे बहुत शीघ्र भोगना पड़ा। वस्तुत: वह बड़ा ही दुर्विनीत और दृष्ट था। उसके अशिष्टपूर्ण व्यवहार से चिढ़कर और आवेश में आकर प्रताप सिंह ने उसे प्राण दण्ड की सजा दे दी। बात ही बात में उसके किसी पार्श्ववर्ती सहचर ने अपनी तलवार से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया।

इस घटना के कुछ समय बाद प्रताप सिंह ने बैराठ प्रदेश पर आक्रमण करने का निस्चय किया क्योंकि अभी तक उसकी महत्त्वकांक्षा पूर्ण नहीं हुई थी।

प्रताप सिंह के समक्ष दूसरी महत्त्वपूर्ण समस्या यह थी कि सन् १७७५ में पीपलखेड़े के बुद्धसिंह नामक एक बादशाही जागीरदार के मरने पर अहीरों और मेवों के बीच परस्पर वाद-विवाद उठ खड़ा हुआ। घटना इस प्रकार हुई कि उक्त जागीरदार के मरने पर उसकी सम्पत्ति का उत्तराधिकारी कोई नहीं था। अहीर चाहते थे कि जागीर पर प्रताप सिंह का अधिकार हो, मेव उस जागीर को गोविन्दगढ़ तथा धोसावली ने नवाब जुल्फीकार खाँ के हाथ में दे देना चाहते थे। प्रताप सिंह ने अपने दीवान भगवानदास टोगड़ा को भेजा। जिसने पीपल खेड़े पहुँचते ही उसपर अलवर राज्य की ओर से अपना अधिकार कर लिया। जुल्फिकार खाँ भी सामना करने के लिए आया, लेकिन जब उसे यह ज्ञात हुआ कि पीपल खेड़ा पर प्रताप सिंह का अधिकार हो चुका था, तो वह वापस धोसावली लौट गया।

प्रताप सिंह ने जुल्फीकार खाँ के हस्तक्षेप से परेशान होकर उसका दमन करने के लिए धोसावली पर आक्रामण किया जो उस समय नवाब जुल्फीकार खाँ के अधीन था। प्रताप सिंह को इस अप्रत्याशित आक्रमण में मराठों ने भी सहायता दी और दोनों सेनाओं ने मिलकर धोसावली पर घोरा डाल दिया। जुल्फीकार खाँ बड़ा ही निडर स्वेच्छाकारी व साहसी था। जनरल लेक ने जब मराठों को दिल्ली से निकाल दिया तब वे वहाँ से भागकर धोसावली आये, परन्तु जुल्फीकार खाँ प्रताप सिंह से भी अधिकर द्वेष भाव रखता था और हर प्रकार की छेड़छाड़ किया करते था। अतएव मराठे और प्रताप सिंह दोंनो उसके शत्रु थे, लेकिन न तो मराठे और न राव प्रताप सिंह अकेले इसे परास्त कर सकते थे। इसलिए उसको परास्त करने के लिए मराठा व प्रताप सिंह ने आपस में समझौता कर लिया। दोनों ने मिलकर उसे युद्ध में पराजित किया। पराजित होने पर वह आश्रय व सहायता के लिए इधर-उधर भटकता फिरा, लेकिन लखनऊ तक किसी ने उसकी सहायता नहीं की। अन्त में बुन्देलखण्ड जाकर वह लड़ाई में काम आया। उसके राज्य पर भी प्रताप सिंह का अधिकार हो गया। प्रताप सिंह ने धोसावली को उजाड़कर गोविन्दगढ़ बसाया।

जुल्फीकार खाँ के युद्ध में परास्त होकर भाग जाने तथा प्रताप सिंह के धोसावली को हस्तगत कर लेने पर जुल्फीकार खाँ के समर्थक वहाँ के मेवों ने उसके विरुद्ध विद्रोह किया। प्रताप सिंह ने उनके मुख्य नेताओं को अपनी ओर मिला लिया, जिससे उनकी शक्ति कम हो जाने पर उन्हें विवश होकर उसकी अधिनता स्वीकार करनी पड़ी। इस प्रकार प्रताप सिंह ने अपने साहस और योग्यता से बहुत शीघ्र अपने विद्रोहियों का दमन करने में सफलता प्राप्त की।

नजफ खाँ का भरतपुर पर तृतीय आक्रमण तथा प्रताप सिंह की नीति

सन् १७७५ में मिर्जा नवाब नजफ खाँ ने भरतपुर पर तीसरी बार आक्रमण किया और आक्रमण में उसकी सहायता करने के लिए उसने प्रताप सिंह को लिखा। जिसके उत्तर में उसने अपनी कुछ सेना सहित अपने मन्त्री खुशालीराम को नजफ खाँ की सहायता करने के लिए भेजा।

भरतपुर नरेश नवल सिंह  अपने मंत्री जोधराज, चतुर सिंह चौहान, सीताराम तथा गुरु अचलदास आदि पराक्रमी सामन्तों के साथ शत्रु से लोगा लेने के लिए अपने दुर्ग में आ डटे। दोनों के बीच युद्ध में नजफ खाँ की विजय हुई। इस पर भरतपुर की सेना ने युद्ध भूमि से भागकर डीग के दुर्ग पर शरण ली और नजफ खाँ ने डीग के दुर्ग का घेरा डाल दिया। भरतपुर नरेश ने दुर्ग (डीग) का अच्छा प्रबन्ध कर रखा था। जाटों ने शत्रु की गति रोगने तथा दुर्ग की रक्षा करने में वीरता प्रकट की और शत्रु की विपुल सेना की बड़ी वीरता से सामना किया। परन्तु अंत में उनकी सारी वीरता और सारा यत्न विफल हुआ। जबकि प्रताप सिंह ने नजफ खाँ को सैनको सहायता दी और प्रताप सिंह की सहायता से नजफ खाँ का डीग पर अधिकार हो गया।

प्रताप सिंह ने साम्राज्य विस्तार करने के लिए १७७५-७६ में बहादुर पर अधिकार कर वहाँ एक दुर्ग पर निर्माण करवाया। इसी वर्ष प्रताप सिंह ने डेहरा और जिन्दैली में भी दुर्ग बनवाये।

जयपुर की आन्तरिक समस्याओं में प्रताप सिंह का हस्तक्षेप

प्रताप सिंह ने अपने साम्राज्य विस्तार के लिए जयपुर के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करना शुरु कर दिया। सर्वप्रथम उसने बैराठ प्रदेश पर आक्रमण कर १७७५ में उस पर अधिकार कर लिया। इससे पूर्व इस प्रदेश पर फतेहअली खाँ नामक एक मुसलमान का अधिकार था। प्रताप सिंह ने बैराठ प्रदेश पर आक्रमण किया तब फतेहअली खाँ ने उसका बड़ी बहादुरी से सामना किया। फिर भी वह प्रताप सिंह को पीछो नहीं हटा सका और अंत में परास्त होकर युद्ध भूमि से भाग निकला। अत: बैराठ प्रदेश पर सिंह का अधिकार हो गया।

कुछ समय प्रताप सिंह ने प्रयागपुरा, ताला, धोला, आतेला व मामरु आदि परगनों पर भी अपना अधिकार कर लिया। इस समय प्रताप सिंह के राज्य की सीमाएँ अलवर से लेकर सीकर तक फैल गई थी। प्रताप सिंह ने जयपुर की राजनीति में दुबारा हस्तक्षेप उस समय किया जबकि शेखावटी पर नजफकुली खाँ ने आक्रमण किया उस समय शेखावटी के सरदारों ने प्रताप सिंह से सहायता की प्रार्थना की। उसने उनकी सहायता की ओर नजफकुली खाँ को लड़ाई में पराजित कर उक्त स्थान से मार भगाया।

इस समय प्रताप सिंह की राज्य की सीमाएँ सीकर तक पहुँच गयी थीं, लेकिन सीकर के देवीसिंह और कांसली के सरदार पूरणमल दोनों के बीच कटु सम्बन्ध थे। इसका परिणाय यह हुआ कि कांसली के सरदार पूरणमल ने सीकर राज्य में लूटमार मचाकर बड़ा उपद्रव खड़ा कर दिया और उसके अत्याचार से सीकर का देवीसिंह परेशान हो गया। इस समय पूरणमल ने कांसली के पांचों गांवों पर अधिकार कर लिया। देवीसिंह ने अकेले सामना करने में अपनी सामर्थ्यहीनता को समझ कर प्रताप सिंह से सहायता माँगी। जिस पर प्रताप सिंह ने ससैन्य रवाना हो दोनों के बीच में समझौता कराने की चेष्टा की लेकिन जब पूरणमल किसी प्रकार की संधि के लिए सहमत नहीं हुआ, तब प्रताप सिंह देवीसिंह के साथ सीकर चला गया। वहाँ जाकर उसने सीकर के देवीसिंह की बहुत सहायता की। प्रताप सिंह सीकर में कुछ दिनों ठहर कर अलवर लौटा और देवीसिंह ने कांसली पर अपना अधिकार कर लिया। इस प्रकार प्रताप सिंह ने सीकर के देवीसिंह की सहायता की जिससे दोनों के बीच मित्रता बढ़ी।

इसी समय मुहम्मद बेग हमदानी ने प्रताप सिंह पर आक्रमण किया, जिसमें प्रताप सिंह को विजय प्राप्त न होने के साथ क्षति भी नहीं हुई। इस प्रकार प्रताप सिंह ने सभी समस्याओं का साहस के साथ समाधान किया मुगल सेनापति मिर्जा नजफ खाँ ने जब भी भरतपुर पर आक्रमण किया तब-तब प्रताप सिंह ने मित्रता के सम्बन्ध स्थापित किए। इसका परिणाम यह हुआ कि उसे एस स्थायी मित्र मिल गया जो आगे चलकर कभी-भी जयपुर व भरतपुर के शासकों से उसकी रक्षा कर सकता था।

                 जय मां कुलदेवी जमुवाय।

            मानप्रताप सिहं किल्याणोत ठि.गढ़धवान

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