"स्वाभिमान की सरपरस्ती "




स्वाभिमान की सरपरस्ती में सिर कटते और काटे जाते है,स्वाभिमान की जंग में छाती को ढाल और हौसलों को तलवार बनाया जाता!जहां घाव लगने पर मरहम नहीं बल्कि रणभूमि की पावन रज का लेप लगाया होता है! रक्त रिसते घावों की गिनती शत्रु के नरमुंडो और उसकी शांत होती सांसों से की जाती है, लेकिन मुकुट की महिमा ही अलग है, कभी मस्तक से उतरता है तो कभी मस्तक को उतरवात है, रक्तपात का आदि होता है यह बलियों का बादशाह,खुद सात घेरों में सिंघासन पर विराजमान होकर मौत का तांडव करवाता है, और अंत में अगर विजय हुआ तो स्वयं के शौर्ये का बखान करवाता है और परास्त होने पर नरमुंडो की जाजम पर सजदों और समझौतों की महफ़िल सजाता है!
कटा कौन मिटा कौन ??? किसकी शौर्य और शान में इजाफा हुआ ??? यह सब रणभूमि की दहलीज तक ही सिमित रह जाता है! इस मंजर की गवाहीदार लहू की एक एक बूँद से पल्वित और पोषित हुयी हरी घास को भी सिंघासन के सरपरस्तों द्वारा घोड़ो की टापुओं निचे कुचलवा दिया जाता है! रणभूमि की रज रक्त से नाह कर स्वयं को गर्वित तो महसूस करती पर अंतरात्मा कचोटती है क्यों बिसराये जाते है वो जो कटकर बचाते है शौर्य की उस शान को जिनका कभी उनको हकदार नहीं बनाया जायेगा !जिनकी कुर्बानियों को सदा सदा के लिए आखिर समाहित होना है अश्वों की टापुओं से उड़ती रजधूलि में, आखिर कब तक यह सिलसिला चलता रहेगा ?? आखिर कब तक हक़ से वंचित इन हकदारों को इनकी कुर्बानियो को नाम नहीं मिलेगा ??ना जाने किस मिटटी के बने है यह जिनको ना किसी से गिला है ना सिकवा, अद्धढके बदन और अधियारी कोठरियों में भी स्वाभिमान के शिखर को शान से प्रज्वलित करके रखते है यह! धन्य है कुल धरा जिस पर इनका वास है, धन्य है वो कुल जिसमें इनका अवतरण हुआ है, धन्य है जो अंश जो जिनके लहू से आज भी धरा पर स्वाभिमान जिन्दा है जहां अदने से स्वहित साध्य हेतु अपने जमीर को गिरवी रख देते है
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कुं. नरपत सिंह पिपराली ( नादान)

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