शौर्य गाथाएं राव टोडरमल(उदयपुरवाटी)

राव टोडरमल (उदयपुरवाटी)


राव भोजराज जी के यशस्वी पुत्र टोडरमल ने उदयपुरवाटी की बागडोर संभाली। टोडरमल जी भोजराज जी की जादव ठकुरानी के पुत्र थे। वि.स.1684 के करीब अपने पिता के जीवनकाल में ही वे उदयपुर में रहने लगे थे। इसके पूर्व ही उनकी वीरता प्रकट होने लग गयी थी। वि. स.1680 से पूर्व वे महाराजा जय सिंह आमेर की सेवा में जा चुके थे।बादशाही जहाँगीर के समय उनका पुत्र खुर्रम बागी हो गया था। 29 मार्च 1623 को बिलोचपुर में बादशाही सेना से उसकी भिडंत हुई। उस समय आमेर राजा जयसिंह प्रथम बादशाही सेना में थे। खुर्रम वहां से हारकर दक्षिण की तरफ भागा। और आमेर पहुंचा। उस समय आमेर की रक्षार्थ जयसिंह ने टोडरमल जी को छोड़ रखा था। टोडरमल जी ने खुर्रम का मुकाबला किया,और आमेर से भगा दिया, उस समय किसी कवि ने कहा:-

“खड़ शहजादो खुरम ,अड़ग आयो तिण बेरां
उण दिन टोडरमल, उपर किधो आमेरा”
कार देश कादीयो, किलम मानसौर मचायो “

उस समय उनकी वीरता निम्न सौरठे से भी ज्ञात होती है।

“हे दुसर हिंदाल एड न कर आमेर सूं।
गढ़ में टोडरमल ,भलो लिन्या भोजवत।।

खुर्रम यहाँ से दक्षिण की तरफ भाग गया। वहां वह विद्रोही बना घूमता रहा। 16अक्ट.1624 को फिर शाही सेना का मुकाबला उससे हुआ। उस समय भी टोडरमल जयसिंह के साथ थे। और वहां खुर्रम से युद्ध किया। उस समय भी युद्ध संबंधी निम्न दोहा कहा जाता है।

“तू शेखो तू रायमल,तू ही रायासाल।
जयसिंह रा दल ऊजला,थां सू टोडर माल।।


टोडरमल अपने समय के दातार शासकों में से एक थे। उनकी दातारी की बातें आज तक जनमानस के ह्रदय-पटल पर अंकित है। सुना जाता है की प्रतिदिन उनके द्वारा संचालित रसोवड़े में कितने ही भूखे व्यक्ति भोजन प्राप्त करते थे। इस की स्मृति में निम्न दोहे आज भी सुने जाते है।

“पंथी पूछे पन्थिया,ओ बन किम बीरान।
टोडर माल रसोवडे,पतल पूज्या पान।।

जीमे टोडर माल जठे,सो सामंता थंड।
चुलू करे जिण चिखले,मीन रहे घर मंड।।

(एक पथिक दुसरे पथिक से पूछता है यह वन वीरान क्यों है? दूसरा पथिक उत्तर देता है,क्योंकि इस वन के सब पते टोडरमल के रसोवडे में जाकर पतल बन गए है। जहाँ टोडरमल भोजन करते है। और जहाँ वे चुल्लू करते है,वहां इतना कीचड़ होता है कि मछली अपना घर बनाकर रहती है।)


टोडरमल की दातारी:-
टोडरमल कि दातारी की बातें जब उदयपुर (राणाजी का) के महाराणा जगतसिंह के पास पहुंची,तो जगत सिंह को ऐसा लगा कि इस उदयपुर की दातारी नीचे खिसक रही है। अतः उन्होंने टोडरमल की दातारी कि परीक्षा लेने के लिए अपने चारण हरिदास सिंधायच को भेजा| चारण के उदयपुर सीमा में प्रवेश करते ही उनको पालकी में बैठाया,और कहारों के साथ टोडरमल स्वयं भी पालकी में लग गए। उदयपुर पहुँचने पर उनका भारी स्वागत किया गया। बारहठ जी ने जब गद्दी पर टोडरमल के रूप में उसी व्यक्ति को बैठे देखा,जिसने उनकी पालकी में कन्धा दिया था। इससे बारहठ जी बड़े प्रभावित हुए। और जाते वक्त बारहठ जी को क्या दिया इसका तो पता नहीं पर चारण हरिदास उनकी दातारी पर बड़ा प्रसन्न हुआ, और निम्न दोहा कहा।

“दोय उदयपुर ऊजला ,दोय दातार अटल्ल”
एकज राणो जगत सी,दूजो टोडर मल्ल।

ई.1640-1666 टोडरमल जी का मेवाड़ के महाराणा के पास जाना-नकली आमेर की रक्षा



धीणावता की खानों के प्रभारी ब्राह्मण से अनबन होने के बाद सम्भवतः बादशाह के हस्तक्षेप होंने की संभावना के कारण वो मेवाड़ के महाराणा के पास चले गए थे।दशहरे के दिन मेवाड़ के महाराणा द्वारा मिट्टी का नकली आमेर बना कर विध्वंस करने की परंपरा बन गई थी।इस बार टोडरमल जी उपस्थिति में यह कार्यक्रम हुआ,लेकिन ज्योहीं महाराणा की सेना मिट्टी के नकली आमेर का विध्वंस करने आगे बढ़ी,टोडरमल जी अपनी मातृभूमि के स्वाभिमान की रक्षा के लिये मरने मारने पर उतारू हो गये।सैनिकों ने महाराणा को जाकर बताया कि टोडरमल जी नकली आमेर की रक्षा हेतु मरने मारने पर उतारू है आप आदेश दीजिये क्या करना है।उस वक्त देवगढ़ पर सलम्बर के शासकों ने राणाजी को समझाया कि अपनी मातृभूमि को अपने सम्मुख कोई भी राजपूत अपमानित होते कैसे देख सकता है ?
अतः टोडरमल जी का तैनात होना स्वभाविक है।इसी कारण उस दिन बाद मेवाड़ के महाराणाओं ने इस प्रथा को समाप्त कर दिया ।आमेर के महाराजा ने जब टोडरमल जी के उनके इस  साहसपूर्ण कार्य द्वारा आमेर के स्वाभिमान की रक्षा की बात सुनी तो वो बहुत प्रसन्न हुए।

राव टोडरमल द्वारा महल मंदिर निर्माण


टोडरमल ने अपने रनिवास के लिए उदयपुर में एक सुंदर महल का निर्माण करवाया। जो आज उनके वंशजो द्वारा उपयुक्त देखरेख के अभाव में खँडहर में तब्दील हो चूका है। किरोड़ी गांव में टोडरमल जी ने वि.1670 में गिरधारी जी का मंदिर बनवाया था।टोडरमलजी के पुत्रों में से एक झुंझार सिंह थे,झुंझार सिंह सबसे वीर प्रतापी निडर कुशल योद्धा थे , तत्कालीन समय "केड" गाँव पर नवाब का शासन था,नवाब की बढती ताकत से टोडरमल जी चिंतित हुए| परन्तु वो काफी वृद्ध हो चुके थे। इसलिए केड पर अधिकार नहीं कर पाए|कहते हैं टोडरमल जी मृत्यु शय्या पर थे लेकिन मन्न में एक बैचेनी उन्हें हर समय खटकती थी,इसके चलते उनके पैर सीधे नहीं हो रहे थे। वीर पुत्र झुंझार सिंह ने अपने पिता से इसका कारण पुछा|टोडरमल जी ने कहा "बेटा पैर सीधे कैसे करू,इनके केड अड़ रही है"(अर्थात केड पर अधिकार किये बिना मुझे शांति नहीं मिलेगी)| पिता की अंतिम इच्छा सुनकर वीर क्षत्रिये पुत्र भला चुप कैसे बैठ सकता था? झुंझार सिंह अपने नाम के अनुरूप वीर योद्धा,पित्रभक्त थे !उन्होंने तुरंत केड पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में उन्होंने केड को बुरी तरह तहस नहस कर दिया। जलते हुए केड की लपटों के उठते धुएं को देखकर टोडरमल जी को परमशांति का अनुभव हुआ,और उन्होंने स्वर्गलोक का रुख किया। इन्ही झुंझार सिंह ने अपनी प्रिय ठकुरानी गौड़जी के नाम पर "गुढ़ा गौड़जी का" बसाया|

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