कहा जाता है कि शंकराचार्य ने गढ़वाल शासक राजा कनक पाल की सहायता से इस क्षेत्र से सभी बौद्धों को निष्कासित कर दिया था।इसके बाद कनकपाल, और उनके उत्तराधिकारियों ने ही इस मन्दिर की प्रबन्ध व्यवस्था संभाली। गढ़वाल के राजाओं ने मन्दिर प्रबन्धन के खर्चों को पूरा करने के लिए ग्रामों के एक समूह (गूंठ) की स्थापना की। इसके अतिरिक्त मन्दिर की ओर आने वाले रास्ते पर भी कई ग्राम बसाये गए, जिनसे हुई आय का उपयोग तीर्थयात्रियों के खाने और ठहरने की व्यवस्था करने के लिए किया जाता था। समय के साथ-साथ, परमार शासकों ने "बोलांद बद्रीनाथ" नाम अपना लिया, जिसका अर्थ बोलते हुए बद्रीनाथ है। उनका एक अन्य नाम "श्री १०८ बद्रीश्चारायपरायण गढ़राज महिमहेन्द्र, धर्मवैभव, धर्मरक्षक शिरोमणि" भी था।इस समय तक गढ़वाल राज्य के सिंहासन को "बद्रीनाथ की गद्दी" कहा जाने लगा था, और मन्दिर में जाने से पहले भक्त राजा को श्रद्धा अर्पित करते थे। यह प्रथा उन्नीसवी शताब्दी के उत्तरार्ध तक जारी रही। सोलहवीं शताब्दी में गढ़वाल के तत्कालीन राजा ने बद्रीनाथ मूर्ति को गुफा से लाकर वर्तमान मन्दिर में स्थापित किया।[मन्दिर के बन जाने के बाद इन्दौर की महारानी अहिल्याबाई ने यहां स्वर्ण कलश छत्री चढ़ाई थी।बीसवीं शताब्दी में जब गढ़वाल राज्य को दो भागों में बांटा गया, तो बद्रीनाथ मन्दिर ब्रिटिश शासन के अंतर्गत आ गया; हालाँकि मन्दिर की प्रबंधन समिति का अध्यक्ष तब भी गढ़वाल का राजा ही होता था।
सत्रहवीं शताब्दी में गढ़वाल के राजाओं द्वारा मन्दिर का विस्तार :-
मन्दिर की आयु, और क्षेत्र में निरन्तर आने वाले हिमस्खलनों के कारण होने वाली क्षति के फलस्वरूप मन्दिर का कई बार नवीनीकरण हुआ है। सत्रहवीं शताब्दी में गढ़वाल के राजाओं द्वारा मन्दिर का विस्तार करवाया गया था। १८०३ में इस हिमालयी क्षेत्र में आये एक भूकम्प ने मन्दिर को भारी क्षति पहुंचाई थी, जिसके बाद यह मन्दिर जयपुर के राजा जगत सिंह द्वारा पुनर्निर्मित करवाया गया था।निर्माण कार्य १८७० के दशक के अंत तक चल ही रहे थे,हालाँकि यह मन्दिर प्रथम विश्व युद्ध के समय तक बनकर पूरी तरह से तैयार हो गया था।इस समय तक मन्दिर के आस पास एक छोटा सा नगर भी बसने लगा था, जिसमें मन्दिर के कर्मचारियों के आवास के रूप में २० झोपड़ियां थी।तब तीर्थयात्रियों की संख्या आमतौर पर सात से दस हजार के बीच रहती थी, हालाँकि प्रत्येक बारह वर्षों में आने वाले कुम्भ मेले त्यौहार के समय इन आगंतुकों की संख्या ५०,००० तक बढ़ जाती थी। मन्दिर को विभिन्न राजाओं द्वारा दान दिए गए कई ग्रामों से भी राजस्व प्राप्ति होती थी। २००६ में राज्य सरकार ने अवैध अतिक्रमण पर रोक लगाने के लिए बद्रीनाथ के आसपास के क्षेत्र को नो-कंस्ट्रक्शन जोन घोषित कर दिया।
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