महारानी पद्मिनी कोई किरदार नहीं बल्कि गौरवमयी स्वाभिमान

आखिर क्यों बार बार अपनी दौलत की पिपासा को शांत करने हेतु बॉलीवुड की रंगीनिया अपने नग्नता का प्रदर्शन करती है।और इसी मदहोशी में वो उस हद को पार करने में भी गुरेज नहीं करते है जो हमारी सामाजिक ऐतिहासिक और सास्कृतिक धरोहर की धरा को हिलाकर रख देती है। ऐसा एक बार नहीं कई बार हो चूका है जब बॉलीवुड की काल्पनिक दुनिया ने समाज के आम जन की भावनाओ को आहत किया है। विशेष कर उस समाज का जो हिंदुस्तान का सिरमौर रहा है। जिस कुल,जिस वंश में स्वयं भगवान ने अवतरित होकर सुशोभित किया लेकिन इस काल्पनिक दुनिया ने स्वयं ईश्वर को ही चुनोती दे डाली की ईश्वर भी काल्पनिक है ।मज्जे की बात तो यह है की इस काल्पनिक दुनिया के यह आधुनिक रचियता आम जन की भावनाओ को ताक में रख कर खुद अपनी कल्पनाओ की सफलता के लिए कभी सिद्धि विनायक तो कभी शिरडी तो कभी वेष्णु देवी के दर पर माथा पटकते नज़र आते है। हद तो तब पर होती है जब यह लोग अपने कल्पनाओ के घोड़ो पर सवार  होकर एक समाज विशेष के स्वाभिमानी चेहरों को काल्पनिक पात्र में रच डालते है।
हिंदुत्व खास कर क्षत्रियो के भावनाओ को यह लोगो पिछले सत्तर सालों से आहत करते है आये है।इन्होंने क्षत्रिय जैसी स्वाभिमानी कौम को कभी अत्याचारी ठाकुर के काल्पनिक  स्वरुप को अपनी कल्पनाओ के घोड़े पर सवार कर विलेन के रूप में आमजन के समक्ष प्रस्तुत किया तो कभी उसके किरदार को चम्बल के बीहड़ो के दुर्दन्त और आदमखोर डकैत के रूप रचडाला। और अब तो हद हो गयी जब इन लोगों ने उन किरदारों को जो हिंदुस्तान के स्वाभिमान का प्रतीक है उनको ही अपनी असीमित दौलत की कभी ना खत्म होने वाली  पिपासा को शांत करने के लिए अपनी कल्पनाओ की चासनी में लपेट कर इन वास्तविक चरित्रो को भी झुठो और चरित्रहीन  साबित करने के दुसाहसिक कृत्य को अंजाम देने के लिये इन लोगों ने  अपनी काल्पनिक दुनिया की रंगीनियों को और हसीन करने केंलिये  रच डाला है।लेकिन सत्तर साल से अपनी भावनाओ के सैलाब को दबा कर अपमान को कड़वा घूंट पीने वाली  स्वाभिमानी कौम के सब्र का बांध टूट चूका है। सत्तर साल से लबालब भरे इस बांध की चपेट में अब ना जाने बॉलीवुड की काल्पनिक दुनिया के कितने ही रहनुमा बहने  वाले है शुरुवात जयगढ़ जयपुर से हो चुकी है। संजय भंसाली को महारानी पद्मावती के किरदार को अपनी कल्पनाओ में लाने से पहले यह सोच लेना चाहिए की महारानी पद्मावती सिर्फ एक ऐतिहासिक किरदार नहीं बल्कि क्षत्रिय कौम और राजपूताने के स्वाभिमान का प्रतीक है।एक ऐसा स्वाभिमान जो जौहर के कुण्ड में तप कर निखरा था,जिसकी लपटों में ख़िलजी जैसा दुराचारी नहीं बचा तो भंसाली की तो हैसियत ही नहीं।जयगढ़ की घटना तो इस काल्पनिक दुनिया के जादूगरों के लिये सिर्फ चेतावनी भर है।अगर अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर कौम की भावनाओ को भविष्य में आहत करने की  नापाक कोशिसें जारी रखी गयी तो इस आगाज का अंजाम बहुत ही भयानक हो सकता है।इस लिये बॉलीवुड के कर्ताधर्ताओं को वास्तविक जीवन की इस वास्तविक फ़िल्म के इस छोटे से ट्रेलर से सबक ले लेना चाहिए वरना सम्पूर्ण फिल्म बड़ी ही मज्जेदार होगी।
           !!लेखन!!
कुंवर नादान

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