आधुनिक पत्रकारीता ओर उसका धर्म


आधुनिक पत्रकारीता ओर उसका धर्म
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मीडिया जिसको देश का चौथा स्तम्भ माना जाता है.निष्पक्षता जिसका मूलमंत्र ओर सचाई जिसकी आत्मा होनी चाहिए लेकिन है नही,आज हर एक मीडिया हाउस किसी ना किसी बिजनसमैन या किसी ना किसी कॉरपोरेट  हाउस से बिलोंग करता हुआ मिलेगा आपको।पोजीशन अपोजिशन, प्रतिद्विंद्वीता,पार्टी धर्म जात ना जाने किस कसी के मिक्सर से बने है इस स्तम्भ के कंगूरे, ओर सबसे बड़ी चीज टीआरपी के साथ साथ पैड परिभाषण इन सब के मंथन के उपरांत जो भी निकले वही आज के मीडिया हाउसेज की पूर्ण परिभाषा है बन्धुवर..
पिछले दो महीनों के खेल तो ओर भी अजब निराले है इनके,यहां निराले शब्द का प्रयोग  मैं इसलिए कह रहा हूँ कि,भावनाओ की भीड़ को समाचार का साधन बनाकर भावनाओं को जिसने जितना ज्यादा  कैस किया वही इस खेल का महारथी। ओर तो ओर राजनीति के बड़े बड़े धुरन्धर घुटनो के बल  बैठे मिल जायेंगे यहां आपको, कठपुतली के खेल की तरह  बस फर्क सिर्फ इतना कि स्टेज पर कठपुतलियों की जगह हडपुतलियाँ  विराजमान होती है परंतु नचाने वाली उंगलिया वही,जितनी बड़ी स्क्रिप्ट उतना बड़ा पैसा और नाम अलग से,लेकिन इन नाचने वाली पुतलियों को यह नही पता होता है कि वक्त पड़े वसूली भी दुगुनी होती है।
चलिए अब मुद्दे पर आते है,पिछले दो महीनों से मैं आप ओर अपने जैसे करोड़ो लोग घरों की तालाबंदी में कैद है और कैदियों की छटपटाहट आजादी,ओर आखिर यह बेबस आजादी निकल पड़ी सड़कों पर,कहीं भूखी कहीं प्यासी तो कहीं बेबस,परन्तु इन सब से अलग हजारों हाथ आगे बढ़े कहीं भूख को थामने तो कहीं बेबसी हो परन्तु इन सब के बीच कुछ गिद्दों के झुंड भी  निकल पड़े इन  सड़कों पर,लेकिन उनकी भूख और बेबसी वास्तविक  से अलग और अथाह:,ओर फिर शुरू हुआ मानवता की भावनाओ ओर बेबसी को कैश करने का खेल,कहि बचपन मोहरा था तो कही बेबसी,कहीं जवानी के जोश मोहरा बने तो कहीं सिर पर जिंदगी का बोझा उठाइये खुद जिंदगी,पैदल चलते पैरों के छालों को बड़ी बड़ी स्क्रीन पर खूब कैश किया गया,परन्तु उन पैरों पर मलहम ना ला सके ये टीआरपी योद्धा,साइकिल पर सोते बचपन की तश्वीर बड़ी शानदार तरीके से उकेरी पर  किंतु किसी ने भी अपने पास खड़े समाचार प्रवाहक वाहन से उस बेबस बचपन को उसके घर तक पहुंचने की किंचित मात्र भी चेष्टा ना की।भूख और गरीब बेधर बेबसी के मंजर को शानदार केनवस पर शानदार तरीके से कैश किया इन सभी मीडिया हाउसेज ने परन्तु कितनो ने सड़कों चलती बेबसी ओर मीलों चल कर थकी जिंदगी का सहारा बनकर उनके गंतव्य तक पहुंचाने की कोशिश की?? किसी ने भी नही, कितने मीडिया हाउसेज ने उन  भूखे ओर बेबस लोगों के लिए लंगर लगाये जो अपनी बेबसी ओर भावनाओ का बोझा सिर पर रख कर बेसुध हो कर निकल चुके थे अपने घर को??कितनों ने जिंदगी ओर बेबसी के इस महापलायन को रोकने की कोशिश की??लेकिन सत्य है की क्यो करें हम??सहानुभूतिवस टीआरपी वाले टियर्स निकल सकते है हमारे किंतु सहायता का श्रम हम से ना होने वाला है बिरादर,चाहे बुरा मानो।

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