मैं ही श्रेष्ठ- विनाश का घोतक



मैं ही श्रेष्ठ- विनाश का घोतक



अपने आचार विचार और अपने व्यवहार पर अधिक ध्यान केंद्रित कीजिये,बाकी जो आजाद है वो आजाद रहेंगे ओर जो मानशिक गुलाम है उनको कोई आजाद नही कर सकता।हमारी कौम की यह विडम्बना,अब इसे इसे विडम्बना कहूँ या खूनी परम्परा समझ नही आ रहा लेकिन यह आज से कोई नई नही सदियों से चली रही है,मैं श्रेष्ठ मुझ से बड़ा कोई नही। मैं ओर सिर्फ मैं अथाह ज्ञान का सागर,मैं अपने आप मे श्रेष्ठ, मैं अपने आप मे सम्पूर्ण।इस 'मैं'वाली घातक परम्परा का निर्वहन जब हमारे पूर्वजों ने किया तो हम कैसे इसका त्याग कर दे।

परंतु सनद रहे सदियों पहले राणा सांगा ने इस मिथक को तोड़ने का प्रयास किया था लेकिन वो भी असफल रहे,उसके बाद आयी हमारी पूर्वज पीढ़ियों में किसी का स्वाभिमान आड़े आ गया तो,किसी का हठ, किसी की ईर्ष्या,तो किसी का अहम,सदियों तक इस श्रेष्ठता का यह खेल ऐसे ही चलता रहा और चल रहा है। राणा सांगा के बाद आज तक कोई पैदा नही हुआ जिसने इस मिथक को तोड़ने का प्रयास किया हो ।

गोत्र की श्रेष्ठता और अहंकार

अहंकार और आलोचना

वर्तमान में ले लीजिये ,राठोड़ो में मेड़तिया श्रेष्ठ,तो शेखावतों में भोजराजिका,भाटियों में रावलोत,ओर इन सब में भी अगर कोई अपने आप को स्वघोषित सर्वश्रेष्ठ मानता है तो वो है सिसोदिया,जो अपने आगे किसी को टिकने की इजाजत नही देते,सोचिये जरा यह अहम,यह दम्भ अगर नही होता तो आज हमारी स्थिती क्या होती??


विनाशकारी पुरानी भूलों का अनुसरण

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वैसे कहते है कि बार बार लोहे पर चोट की जाए तो वो भी अपना आकर बदल लेता। पत्थर पर बार बार चोट कर उसे एक सुंदर सी मूर्ति में ढाला जा सकता है लेकिन हम..बार बार आज भी उन्ही दोहरावों का अनुसरण कर रहे है जो हमें पतन की पराकाष्ठा दिखा चुके है। दुर्भाग्य देखिये की इतना सब कुछ होने के बावजूद आज भी हमारा वही पुराना दम्भ हमारी वही एक दूसरे के प्रति ईर्ष्या का प्रभाव बदस्तूर कायम है , वही पुरानी 'मैं की वही पुरानी प्रकिया'जिसने अनगिनत पीढ़ियों के प्रवाह को जमीं दोष कर दिया,उसे हम आज तक नही बदल पाये ओर सच कहूं तो भविष्य में इसकी सम्भावना नगण्य ही नज़र आ रही है।

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