शौर्य गाथाएं -महाराजा मानसिंह कच्छावा आमेर
सनातन धर्म रक्षार्थ राजा मानसिंह आमेर अकबर के साथ बने रहे क्योंकि क्षीण हो चुकी राजपूत शक्ति को पुन: मजबूत करना था और इसके साथ भारत का इस्लामीकरण ना हो इसके लिये यह आवश्यक था कि पठान व मुगल कभी एक ना हो सके और इस कार्य में मानसिंह आमेर सफल रहे ।।अकबर भी यह जानता था कि बिना मानसिंह आमेर व राजपूत शक्ति के उसका राज्य सुरक्षित नही है अत: दोनों पक्ष अपनी अपनी मजबूरी के कारण एक दुसरे के साथ थे ।
मानसिंह के बढ़ चूके प्रभाव से मुस्लिम सेनापति व सभी सल्लतनतों के सरदार मानसिंह को इस्लाम का दुश्मन मान चुके थे क्योंकि भारत में जो इस्लामीकरण कि बाढ आनी थी वह राजा मानसिंह के कारण रुक गयी ।
मानसिंह आमेर के सनातन धर्म रक्षक व इस्लामीकरण में बाधक होने के कारण ही सलीम व मानसिंह आमेर में निरन्तर दुरी बनी यह एक सत्य बात है पिछली पोस्ट में हमने इस पर विस्तार से बताया अब उससे आगे ।।
विरोधियो द्वारा रामदास कछवाहा, रायसल दरबारी व माधवसिंह को सलीम के पक्ष में करना
विद्वान लेखक ने जहाँगीरनामा की सत्यता को अस्वीकार करते हुए भी, उसी के तथ्यों को अधिक महत्व दिया है । दूसरी तरफ पिथलपोता की ख्यात को अत्यधिक महत्व दिया गया है, जबकि इस ख्यात को अत्यधिक महत्व दिया गया है, जबकि इस ख्यात का लेखक भी रामदास कछवाहा का दरबारी लेखक था । यधपि इस बात का कोई लिखित प्रमाण नही है कि रामदास कछवाहा, रायसल दरबारी व माधवसिंह को अकबर ने अपने जीवन काल में ही सलीम के पक्ष में कर दिया था, किन्तु परिस्थितियों इस बात की साक्षि देती है की ये तीनों व्यक्ति जो हमेशा मानसिंह का कन्धे से कन्धा मिलाकर साथ देते रहे, यकायक उसके विरूद्ध नही हो सकते थे ।
मानसिंह की आगरा व आमेर से लम्बी अनुपस्थिति ने अकबर व मानसिंह के विरोधियों को उन तीनों को अपने पक्ष में अथवा सलीम के पक्ष में करने का अवसर प्रदान किया ।।
मुस्लिम इतिहासकारो द्वारा यह लिखा गया है कि रायसल दरबारी ने मुगल सल्तनत के प्रति वफादारी के कारण सलीम का साथ दिया, किन्तु वफादारी दो विरोधी पक्षों के बिच कभी भी संभव नही है । रायसल दरबारी शेखावत थे, जिनके आदि पुरुष शेखा ने आमेर के राजा चन्द्रसेन के साथ यह सन्धि की थी की शेखावत हमेशा आमेर के राजाओं के साथ रहेंगे व आमेर राजा हर मुसीबत में शेखावतो का साथ देंगे । इस सन्धि का किसी भी पक्ष ने बिना उलंघन किए, एक-दूसरे का सहयोग कर बड़े से बड़ा त्याग किया था ।
आमेर के राजा साथ हुई इस सन्धि को तोड़ना क्या गलत नही था ? दूसरी तरफ माधवसिंह मानसिंह के सगे भाई थे जिसने अपने जीवन में मानसिंह के साथ खतरनाक युद्धों में भाग लेकर अपने जीवन को अनेक बार खतरे में डाला था । यह सम्भव नही है कि मानसिंह का ऐसा कोई हितैषि भाई बिना किसी षड्यंत्र का शिकार हुए मानसिंह का विरोध करता । इसी प्रकार रामदास कछवाहा भी इस हैसियत का व्यक्ति नही था जो अकेले मानसिंह कि खिलाफत का विचार भी करते । यथार्त इन तीनो को पहले ही बादशाह अकबर ने कोई प्रलोभन देकर अपने पक्ष में कर लिया होगा ।।
मान सिंह जी की आमेर वापसी
सलीम के बादशाह बन जाने के बाद उसने यह सिद्ध कर दिया कि मानसिंह को प्राप्त सूचनाएं व उसके विचार पूरी तरह सही थे । जहाँगीर ने शासन प्राप्त करते ही मानसिंह के मनसब सात हजार से घटा कर पॉँच हजार का किया व उन्हें आगरा व बंगाल से दुर रखने के लिए, तुरन्त दक्षिण जाने का आदेश दिया, किन्तु मानसिंह अपनी नाराजगी दर्ज करवाने के लिए कटिबद्ध थे । अतः उन्होंने दक्षिण जाने की जगह आमेर जाने कि बात रखी जिसे न चाहते हुए भी, वह देने को मजबूर हूआ । मानसिंह ने इन तीन वर्षों का उपयोग, आमेर को सुदृढ़ करने मे किया ।
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