क्षत्रियों की उत्पत्ति एवं ऐतिहासिक महत्व


क्षत्रियों की उत्पत्ति एवं ऐतिहासिक महत्व

पौराणिक पुस्तकों, वेदों एवं स्मृति ग्रन्थों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि प्राचीनकाल में आर्यों के लिए निर्धारित नियम थे, परन्तु जाति एवं वर्ण व्यवस्था नहीं थी और न ही कोई राजा होता था। आर्य लोग कबीलों में रहते थे और कबीलों के नियम ही उन पर लागू होते थे। आर्य लोग श्रेष्ठगुण और कर्म वाले समूहों के अंग थे। आर्यों ने गुणों एव कर्मों के अनुसार वर्णों की व्यवस्था की थी। उस समय आर्यो का विशिष्ट कर्म यज्ञ करना था।


भगवान कृष्ण ने गीता के चतुर्थ अध्याय एवं 13 वें श्लोक में कहा था कि मैंने इस समाज को उसकी कार्यक्षमता, गुणवत्ता, शूरवीरता, विद्वता एवं जन्मजात गुणों, स्वभाव और शक्ति के अनुसार चार वर्णों में विभाजित किया।
चातुर्वण्र्य मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्वयकर्तामव्ययम् ।। 

श्री कृष्ण ने गीता के तृतीय अध्याय एवं 10 वें श्लोक में कहा है कि ब्राद्या्र ने प्रजापति से कहा कि यज्ञ तुम्हारी वृद्वि तथा इच्छित फल देने वाला है। इसके बाद इन आर्यों को गुणों एवं कर्मों के अनुसार चार वर्णों में विभाजित किया। वर्ण व्यवस्था का पहला अंग था ब्राह्मण, जिसका कार्य यज्ञ करना, वेद आदि धार्मिक ग्रन्थों का पठन करना, पढ़ाना तथा अन्य वर्णों को धर्म का मार्ग दिखाना। दूसरा अंग था क्षत्रिय जिसका मुख्य कार्य समूहों की रक्षा करना, वेदों का अध्ययन करना, यज्ञ करना तथा समाज को नियंत्रण में रखना था। तीसरा अंग था वैश्य, जिनका मुख्य कार्य वाणिज्य, कृषि एवं धर्म ग्रन्थों को पढ़ना आदि था। चौथा अंग था शूद्र, जिसका कार्य उपरोक्त तीनों अंगों की सेवा करना था। ऋग्वेद में लिखा है:-
यत्पुरूष व्यदधु कतिध व्यकल्पयन।मुखं किमस्य को बाहु काबूरू पादा उच्यते ।।
ब्राद्य्राणोऽस्य मुखमासीद बाहू राजन्य कृतः । उरू तदस्य मद्धस्य पदभ्यां शूद्रोज्जायतः।।




प्रजापत ने मानव समाज रूपी जिस पुरूष का विधान किया। मुख कौन, हाथ कौन, जंघा कौन और पैर कौन इसके उत्तर में कहा कि मुख ब्राद्य्राण, हाथ क्षत्रिय, जंघा वैश्य और पैर शूद्र हैं।मनुस्मृत में कहा गया है कि:-
येषान्तु याद्धशड.क्म्र्म भूतानामिह कीर्तितम्
तत्तथा वोड़भिधास्यामि क्रम योगण्च जन्मनि। (चै. 48)

जिस जाति का जैसा कर्म प्रजापति ने बताया है, वैसा ही कार्य उनके लिए उचित है। इससे यह ज्ञात होता है कि मनु से पहले ही आर्यों ने वर्ण व्यवस्था बना ली थी।

ब्राह्मण : विद्वान, शिक्षा का कार्य करने वाला, निपुण पुरोहित एवं कर्मकाण्डी, यज्ञ तथा पूजा पाठ करने वाले को बा्रद्य्रण वर्ण में रखा गया है। इनको छूट है कि वे वैश्य एवं क्षत्रिय के भी कार्य कर सकते हैं। शिक्षा, शिक्षक और पुरोहित इनके मुख्य कार्य हैं तथा विशिष्ट परिस्थिति में यह हथियार उठाने में भी संकोच न करने वाले और कृषि का कार्य भी अपने हाथों में ले सकते हैं। इनको केवल वैश्य और शूद्र के कार्य करना वर्जित है। इन्हें अपने कार्य के अलावा कृषि का कार्य करने में संकोच नहीं करना चाहिये। मनुस्मृत के अनुसार बा्रद्य्राण शादी-ब्याह अपने वर्ण के अलावा, क्षत्रिय, वैश्य वर्ग में भी कर सकते है। लेकिन पहली शादी अपने वर्ण में ही करना आवश्यक है।

वैश्य : वैश्य का मुख्य कार्य व्यापार एवं कृषि है, परन्तु विशेष परिस्थिति में इन्हें हथियार उठाना वर्जित नहीं है। (मुनस्मृत में वर्णित) तदोपरान्त दूसरे वर्ण की जातियों में शादी करने में कोई बन्दिश नहीं है। क्षत्रिय और वैश्य वंश में अपनी शादी कर सकते हैं। (मनुस्मृति के अनुसार)

शूद्र : इस वर्ण को ब्राद्य्रण, क्षत्रिय, वैश्य द्वारा बताएकार्यों को करना तथा कृषि एवं दूसरे कार्य जो उपरोक्त तीनों वर्ण द्वारा बताये गए है को सम्पन्न करना तथा अपनी जीविका के कार्य करना। ये अपने वर्ण में ही शादी कर सकते हैं।

विभिन्न जातियों के कत्र्तव्य (कर्म) मनुस्मृति के अनुसार शस्त्र चलाना क्षत्रियों का कार्य है परन्तु बा्रद्याण और वैश्य जब धर्म पर आपत्ति आये तो उन्हें शस्त्र उठाना वर्जित नहीं है। महाभारत में वर्णित है कि:-
न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्वबा्रद्यमिदं जगत्।
ब्रद्याणा पूर्व सृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम्।।

(भृगु ऋषि ने महर्षि भारद्वाज के प्रश्न के उत्तर में कहा कि सृष्टि के प्रारम्भ में वर्ण भिन्न-भिन्न नहीं थे, ब्रद्य से उत्पन्न होने के कारण सभी का नाम ब्राद्य्रण था।)

वज्र सूच्युपनिषद् में जिज्ञासु शिष्य अपने गुरू से पूछता है कि क्या कोई जाति से बा्रद्य्रण होता है ? इसका उत्तर देते हुए ऋषिवर ने स्पष्ट किया कि ब्राह्मणों की कोई जाति नहीं है, अनेक महर्षि दूसरी अन्य जातियों से उत्पन्न हुए हैं।

सभी धर्म ग्रन्थों को देखने से यही स्पष्ट होता है कि ब्रद्य्रा ईश्वर के शरीर के चारों अंगों से चारों वर्णों की उत्पत्ति हुई है। इसका तात्पर्य यह है कि समूचा आर्य-जगत ईश्वर स्वरूप था, जिसे कर्मों के आधार पर चार वर्णों में बांटा गया, ताकि समाज का कार्य सुचारू रूप से चलता रहे।

आगे चलकर चारों वर्णों के बनाए जाने के बाद आर्य-जगत ने यह अनुभव किया कि सामूहिक शासन ठीक नहीं है। इसलिए समूह ने अपना प्रतिनिधि शासक बनाने का विचार किया। समूह द्वारा निर्णय लेने के बाद प्रतिनिधियों ने क्षत्रिय को राजा बनाया। यह क्षत्रिय सूर्य और उसकी पत्नी सरण्यु से उत्पन्न आर्य संतान पहला क्षत्रिय मनु था, जिसे प्रथम राजा बनाया गया। उसका राज्याभिषेक वायु नाम ऋषि ने किया।

भगवान श्री कृष्ण ने गीता के 18 वें अध्याय में 41,42,44,43 श्लोक में इस वर्ण व्यवस्था के बारे में विस्तृत वर्णन किया है जो इस प्रकार है:-
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणाम च परन्तप।
कर्माणि प्रतिभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः।। 
हे परंतप! बा्रद्यण, क्षत्रिय और वैश्यों के तथा शूद्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणोंद्वारा विभक्त किये गये हैं। ।। 41 ।।
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रद्य्राकर्म स्वभावजम्।।
अन्तः करण का निग्रह करना; इन्द्रियों का दमन करना, धर्मपालन के लिये कष्ट सहन, बाहर-भीतर से शुद्वरहना; दूसरों के अपराधों को क्षमा करना; मन, इन्द्रिय और शरीर को सरल रखना; वेद, शास्त्र ईश्वर और परलोक आदि में श्रद्वा रखना; वेद-शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन करना और परमात्मा के तत्व का अनुभव करना- ये सब के सब ही बा्रद्य्रण के स्वाभाविक कर्म हैं ।। 42 ।।

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्मं स्वभावजम्
परिचयात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ।।
खेती, गोपालन और क्रय-विक्रय रूप, सत्य व्यवहार - ये वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं तथा सब वर्णों की सेवा करना शूद्र का भी स्वाभाविक कर्म है ।। 44 ।।

क्षत्रिय
शौर्यंतेजा धृतिर्दाक्ष्यं युद्वे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभाववश्रच् क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।।
शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्ध में से न भागना, दान देना और स्वाभिमान - ये सब के सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं ।। 43 ।।

ऋग्वेद में क्षत्रिय के कर्म गुंण और स्वभाव के विषय में लिखा है।
धृतव्रता क्षत्रिय यज्ञनिष्कृतो बृहदिना अध्वं राणभर्याश्रियः।
अग्नि होता ऋत सापों अदु हो सो असृजनु वृत्र तये ।।

क्षत्रिय नियमों का पालक, यज्ञ करने वाला, शत्रुओं का संहारक, युद्व में सधैर्य और युद्व क्रियाओं का ज्ञाता होता है।
क्षतात् किलत्रायत इत्युग्रह,
क्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रूढा। (कालिदास)
अर्थात्:- विनाश या हानि से रक्षा करने के अर्थ में यह क्षत्रिय शब्द सारे भुवनों में प्रसिद्व है।

नियम पालनकर्ता, सत्य के अनुसार चलने वाला, शूरवीर, कुशलप्रशासक, दृढसंकल्प, अद्भूत संगठनकत्र्ता, शरणागत की रक्षा करने वाला, दूरदर्शी, चरित्रवान, युद्व मं न डरने वाला तथा अपने गुणों के कारण दूसरों पर प्रभाव डालने वाला। तथा प्रजापालक को क्षत्रिय के वर्ण में रखा गया है। ये गीता के ( अध्याय 18 वें और श्लोक 43 वें) में वर्णित है।
शोर्यं तेजा धृतिर्दाक्ष्यं युद्वे चाप्यपलायनम्।
छानमीश्रव्रभावश्रच् क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।।
शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्व में से न भागना, दान देना और स्वामिभाव- ये सब के सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं। क्षत्रिय के शब्दार्थ के अनुसार वो दूसरोे को आश्रय तथा संरक्षण एवं सुरक्षा देने वाला। क्षत्रिय अपने वर्ण के अतिरिक्त वैश्य, शूद्र वर्ण में शादी कर सकते है। परन्तु पहले अपने वर्ण में तथा बाद में दूसरे वर्ण में इनको शादी करना वर्जित नहीं है। (मनुस्मृति के अनुसार)

वेदों में क्षत्रियों के लिए लिखा है उसमें ‘‘क्षतात्च ते इति क्षत्रिय‘‘ अर्थात् जो वर्ग कमजोरों की सहायता करे और रक्षा करें वो क्षत्रिय है। उस काल में क्षत्रियों के नियम थे असहाय की रक्षा करना, देशद्रोहियों को दण्ड देना, इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना, बूढ़ों और विद्वानों की सेवा करना, धैर्यवान होना, युद्व से नहीं डरना, यज्ञ करना और दान देना क्षत्रियों के गुण है।

राजपूत : राजपूत शब्द का प्रचलन मुस्लिम काल में हुआ। जैसे भारत के लिए हिन्दुस्तान शब्द का तथा सनातन धर्म को हिन्दु धर्म कहा जाने लगा। इसी प्रकार क्षत्रियों के लिए राजपूत शब्द काम में लिया जाने लगा। राजपूत शब्द राजपुत्र का अपभ्रंश है। कहीं-कहीं पर इसे रजपूत शब्द का भी प्रयोग किया गया। रज के अर्थात् मिट्टी, धरती। इसी लिए इन्हें धरती पुत्र भी कहा जाता है। परन्तु राजपूत शब्द प्रचलन में बहुत आया। राजपुत्र के शब्दार्थ है राजा का पुत्र। धीरे-धीरे राजाओं के पुत्रों के परिवार की संख्या बढ़ने लगी और उन सभी को राजपुत्र कहा जाने लगा तथा धीरे-धीरे राजपूत शब्द में परिवर्तित हो गया। जैसा कि ऊपर कहा गया है राजपूत राजपुत्र का ही अपभ्रंश है।

पुराने समय में राजपुत्र शब्द जातिवाचक नहीं था। अपितु परिवार वाचक था और राजकुमार या राजवंशियों का सूचक था। क्योंकि प्राचीनकाल में सारा भारत वर्ष क्षत्रियों के अधीन था और राजकुमारों तथा राजवंशियों के लिए राजपुत्र शब्द का प्रयोग होता था। प्राचीन लेखकों ने जैसे कौटिल्य, कालिदास, बाणभट्ट ने अपनी रचनाओं में राजवंशियों के लिए राजपुत्र शब्द का प्रयोग किया है। यहीं राजपुत्र धीरे-धीरे राजपूत शब्द के रूप में परिवर्तित हो गया और चूँकि यह सभी क्षत्रिय थे, अतः क्षत्रिय के लिए राजपूत शब्द प्रयोग में आने लगा। राजपूत शब्द का प्रयोग महमूद गजनवी के समय तक नहीं था। उसके साथ ‘अलबेरूनी‘ भारत आया था, जो बड़ा विद्वान था। उसने अरबी में बहुत सी पुस्तकें लिखी हैं और भारत की विद्याओं, धर्मों और रीति-रिवाजों आदि का अध्ययन किया। उसने अपने ग्रन्थों में क्षत्रियों का वर्णन किया है, परन्तु कहीं भी राजपूत या राजपुत्र शब्द का प्रयोग नहीं किया। मोहम्मद गौरी के समय तथा अलबेरूनी की मृत्यु 1048 के बाद राजवंशियों को राजपूत नाम से संबोधित किया जाने लगा और धीरे-धीरे यह शब्द जो पहले वंशसूचक था जाति सूचक बन गया और क्षत्रियों के लिए राजपूत शब्द का प्रयोग होने लगा। अब क्षत्रियों और राजपूतों को एक ही नाम तथा जाति से जाना जाता है। अतः क्षत्रिय ही राजपूत और राजपूत ही क्षत्रिय है।

क्षत्रियों का ऐतिहासिक महत्व
भारत में वर्ण व्यवस्था की शुरूआत के पहले से ही क्षत्रियों के अस्तित्व की जानकारी उपलब्ध है। ऋग्वेद में अनेकों स्थान पर ‘‘क्षत्र‘‘ एवं क्षत्रिय शब्द का प्रयोग किया गया है। ऋग्वेद में क्षत्रिय शब्द का प्रयोग शासक वर्ग के व्यक्तित्व का सूचक है। यहां पर ‘‘क्षत्र‘‘ का प्रयोग प्रायः शूरता एवं वीरता के अर्थ में हुआ है। जिसका अभिप्राय लोगों की रक्षा करना था तथा गरीबों को सरंक्षण देना था। यहां क्षत्रिय शब्द का प्रयोग राजा के लिये किया गया है। अतः समाज में क्षत्रियों का एक समूह बन गया जो शूर, वीरता और भूस्ववामी के रूप में अपना आधिपत्य स्थापित किया और शासक के रूप में प्रतिष्ठत हुये।

उत्तर वैदिक काल तक क्षत्रियों को राजकुल से संबंधित मान लिया गया। इस वर्ग के व्यक्ति युद्ध कौशल और प्रशासनिक योग्यता में अग्रणी माने जाने लगे। यह समय क्षत्रियों के उत्कर्ष का समय था। इस काल में क्षत्रियों को वंशानुगत अधिकार मिल गया था तथा वे शस्त्र और शास्त्र के ज्ञाता भी बन गये थे। इस प्रकार राजा जो क्षत्रिय होता था वह राज्य और धर्म दोनों पर प्रभावी हुआ। पुरोहितों पर राजा का इतना प्रभाव पड़ा कि वे राजा का गुणगान करने लगे तथा उनको महिमा मंडित करने के लिये उन्हें दैवी गुणों से आरोहित किया और उन्हें देवत्तव प्रदान किया तथा अपनी शक्ति के प्रभाव से राजा को अदण्डनीय घोषित किया गया।

राजपद एवं राजा की प्रतिष्ठा के साथ क्षत्रियों की प्रतिष्ठा में भी वृद्धि हुई। वृहदारण्यक उपनिषद में कहा गया है कि क्षत्रिय से श्रेष्ठ कोई नहीं है। बा्रह्यण का स्थान उसके बाद आता है। इससे यह स्पष्ठ होता है कि राज्य शक्ति से सम्मलित क्षत्रिय जो बा्रह्यणों के रक्षक और पालक हैं सामाजिक क्षेत्र में श्रेंष्ठ स्वीकार किये गये। बा्रह्यण की श्रेष्ठता का आधार उनका बौद्धिक एवं दार्शनिक होना था। इसका हास हुआ और क्षत्रिय इन क्षेत्रों में भी अग्रणी हुये। राजा जनक, प्रवाहणजबलि, अवश्वपति, कैकेय और काशी नरेश अजातशत्रु ऐसे शासक थे, जिनसे शिक्षा-दीक्षा ग्रहण करने बा्रह्यण आते थे। पौरोहित्य, याज्ञिक क्रियाओं, दार्शनिक गवेषणाओं मंे भी क्षत्रियों ने ब्रह्यणों के एकाधिकर को चुनौती दी। इन परिस्थतियों में क्षत्रियों ने बा्रह्यणों की श्रेष्ठता को अस्वीकार किया। महाभारत में तो यहां तक कहा गया कि बा्रह्यणों को क्षति से बचाने के कारण ये ‘‘क्षत्रिय‘‘ कहे गये। इस प्रकार क्षत्रियों ने शस्त्र और शास्त्र दोनों के ज्ञाता हो अपनी श्रेष्ठता स्थापित की।

इस पूर्ण भू भारत के चप्पा-चप्पा भू को रक्त से सींचने वाले क्षत्रिय वंश के पूर्वज ही तो थे। इनकी कितनी सुन्दर समाज व्यवस्था, कितनी आदर्श परिवार व्यवस्था, कितनी निष्कपट राज व्यवस्था, कितनी कल्याणीकारी अर्थव्यवस्था और कितनी ऊँची धर्म व्यवस्था थी। आज भी क्षत्रिय वंश और भारत को उन व्यवस्थाओं पर गर्व है। यह व्यवस्थाएँ क्षत्रिय वंश द्वारा निर्मित, रक्षित और संचालित थीं। इसके उपरान्त विश्व साहित्य के अनुपम ग्रन्थ महाभारत और रामायण इसी काल में निर्मित हुए। गीता जैसा अमूल्य रत्न भी इसी वंश की कहानी कहता है। जिसका मूल्यांकन आज का विद्वान न कर सका है और न कर सकता है। इन दोनों में क्षत्रिय वंश के पूर्वजों की गौरव गाथएँ और महिमा का वर्णन है। जिन्होंने विश्व विजय किया था और इस भू-खण्ड के चक्रवर्ती समा्रट रहे थे। महाभारत का युद्ध दो भाईयों के परिवार का साधारण गृह युद्ध नहीं था। वह धम्र और अधर्म का युद्ध था। जो छात्र धर्म के औचित्य और स्वरूप को स्थिर रखने का उदाहरण था।

परम् ब्रह्य परमात्मा के रूप में जिस भगवान कृष्ण की भक्ति का भागवत में वर्णन किया गया है, वे 16 कलाओं से परिपूर्ण भगवान कृष्ण भी तो हमारे पूर्वज थे। यह जाति अति आदर्शवान, उच्च निर्भीक और अद्वितीय है। वह अधर्म, अन्याय, अत्याचार, असत्य, और उत्पीड़न के सामने झुकना, नतमस्तक होना नहीं जानती तथा वह पराजय व पतन को भी विजय और उल्लास में बदलना जानती है। रघुवंशियों के गौरव गाथा और उज्जवल महिमा का वर्णन रघुवंश में दिया गया है। इसे पढ़ने पर मन आनन्दित और आत्मा पुलकित हो उठती है।

परम् श्रद्धेय अयोध्यापति श्री राम रघुवंशी भी तो हमारे पूर्वज थे। उनके गौरव व बड़प्पन की तुलना संसार में किसी से नहीं की जा सकी। यहीं नहीं बौद्व धर्म और जैन धर्म के प्रवर्तक और अंहिसा का पाठ पढ़ाने वाले क्षत्रिय पुत्र भगवान बुद्ध और क्षत्रिय पुत्र महावीर ही तो थे। जिन्होनें उस समय देश को अंहिसा का पाठ पढ़ाया। अतः इस वसुन्धरा में क्षत्रिय जाति को छोड़कर कोई अन्य जाति विद्यमान नहीं है, जिसके पीछे इतना साहित्यिक बल, प्रेरणा के स्त्रोत और जिनकी गौरवमई गरिमा एवं शौर्य का वर्णन इतने व्यापक और प्रभाव पूर्ण ढंग से हुआ हो। अपने सम्मान और कुल गौरव की रक्षा के लिए वीरांगनाओं ने अग्नि स्नान (जौहर) और धारा (तलवार) स्नान किया है। मैं यह मानने के लिए कभी तैयार नहीं हूँ कि जिस जाति और वंश के पास इतनी अमूल्य निधि और अटूट साहित्यिक निधि हो वह स्वयं अपने पर गर्व नहीं कर सकती।

सतयुग का इतिहास हमें वैदिक वाग्ड.मय के रूप में देखने को मिलता है। वैदिक और उत्तर वैदिक साहित्य में तत्कालीन जीवन दर्शन समाज व्यवस्था आदि का सांगोपांग चित्रण मिलता है। त्रेता और द्वापर युगों के इतिहास पर समस्त पौराणिक सहित्य भरा पड़ा है। वाल्मीकि रामायण और महाभारत उसी इतिहास के दो अमूल्य ग्रन्थ है। महाभारत काल के पूर्व का हजारों वर्षों का इतिहास क्षत्रिय इतिहास मात्र है। महाभारत काल के पश्चात् लगभग डेढ़ हजार वर्ष का इतिहास भारतीय इतिहास की दृष्टि से अंधकार का युग कहा जा सकता है, पर यह बताने में हमें तनिक भी संकोच नहीं है कि उस समय का समस्त भारत और आस-पास के प्रदेशों पर क्षतित्रों का सर्वभौम प्रभुत्व था।

मौर्यकाल का इतिहास तिथिवार, क्रमवार उपलब्ध है। मौर्यकाल से लगाकर मुसलमानों के आक्रमण तक भारत की क्षत्रिय जाति सर्वभौम प्रभुत्व सम्पन्न जाति रही है। इस्लामी प्रभुत्व के समय में भी जौहर और शाका करके जीवित रहने वाली मर-मर कर पुनः जीवित होने वाली क्षत्रिय जाति का इतिहास हिन्दु भारत का इतिहास है। अतः मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि संसार के प्राचीनतम सभ्य देश भारत में इतिहास में से क्षत्रिय इतिहास निकालने के उपरान्त कुछ भी नहीं बचता। अतः दूसरे शब्दों में यह कहा जाए कि मूल्यतः क्षत्रियों का इतिहास ही भारत का इतिहास है।

इस प्रकार महान ओर व्यापक हिन्दू संस्कृति के अन्तर्गत क्षत्रियों (राजपूतों) की अपनी एक विशिष्ट संस्कृति रही है। यह विशिष्ट संस्कृति कालान्तर में विशिष्ट आचार-विचार, विशिष्ट भाषा, विशिष्ट साहित्य, विशिष्ट इतिहास, विशिष्ट कला-कौशल, विशिष्ठ राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और पारिवारिक व्यवस्थाओं के कारण ओर भी सबल बनी है।

अतः राजपूत एक ऐसा वंश है, जिसके स्वयं के राजनियम, राजविधान, शासन प्रणाली, सभ्य संसार के इतिहास में सबसे अधिक समय तक प्रचलित रहे हैं तथा सबसे अधिक कल्याणकारी और सफल सिद्ध हुई है। बीच-बीच में कुछ राजाओं द्वारा अपने अलग के नियम और प्रजा के अमंगलकारी कार्यों से पूरे क्षत्रिय वंश को बुरा नहीं कहा जा सकता। जहां राजपूतों ने एक ओर भारतीय संस्कृति की रक्षा की, वहीं दूसरी ओर उन्होंने अपनी स्वयं की विशिष्ट संस्कृति का निर्माण किया। यह विशिष्ट राजपूत संस्कृति आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में परिलक्षित होती है। यहां मैं कहना चाहूँगा कि सभी क्षत्रिय शासक निरंकुश नहीं थे, बल्कि इनके समय में शिक्षा, कला, संगीत और संस्कृति की अद्भुत उननति हुई थी। कई तो स्वयं इसके पारखी भी थे, कई तो गरीबों के मित्र एवं सरंक्षक थे। उन्हें सहायता एवं भोजन देते थे। इसमें महाराज हर्ष सबसे अग्रणी थे। ये बैस क्षत्रिय ही तो थे ओर अपनी बहन से मांगकर कपडे़ पहनते थे। बैसवाडे़ में गंगा तट पर बहुत से महत्वपूर्ण स्थान हैं। जिनकी खुदाई कर हम अपने प्राचीन इतिहास को उजागर कर सकते है। यहां समय-समय पर प्राचीन तथा पुरातत्व महत्व की वस्तुओं, सिक्के, बर्तन, हथियार मिलते रहते हैं। जिससे हमारी प्राचीन सभ्यता का ज्ञान होता है। बैसवाड़ा का गंगा तटीय इलाका इस प्राचीन एवं पुरातत्व की वस्तुओं की खान है।

निश्चित रूप से यह कहना कठिन है कि कितने लाख वर्ष पहले हमारे पूर्वजों ने इस वर्ण व्यवस्था को अपना कर सामाजिक जीवन में एक महत्वशाली अनुशासन की व्यवस्था की थी। अतैव अतीत के उस सुदूर प्रभात में भी मानवता के लक्षण, पौषण और उसके लौकिक और परलौकिक उत्कर्ष के लिए यदि कोई वर्ण उत्तरदायी था तो वह वर्ण मुख्य रूप से क्षत्रिय ही तो था ओर यदि कोई जाति और व्यक्ति उत्तरादायी था तो वह क्षत्रिय ही तो था।

पौराणिक काल के जम्बूदीप पर एकछत्र राज की यदि किसी जाति ने स्थापना की तो वह एक मात्र क्षत्रिय ही तो थी। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस पृथ्वी को वर्तमान आकार और स्वरूप देने वाले और इसका दोहर कर समस्त जीवनोपयोगी सामग्री उपलब्ध कराने वाले व्यक्ति क्षत्रिय राजा पृथु ही थे। हिमालय से लगाकर सुदूर दक्षिण और प्रशान्त महासागर से लगाकर ईरान के अति पश्चिमी भाग के भू-खण्ड के अतिरिक्त पूर्वी भाग में तथा आसाम पर क्षत्रियों का ही तो शासन था। यहाँ तक कि देवासुर संगा्रम में देवताओं ने क्षत्रियों का तेज, छात्र शक्ति अन्तर्दृष्टि देखकर ही इनसे सहायता प्राप्त की। एक ओर क्षत्रियों द्वारा रक्षित शान्ति के समय वेदों की रचना हुई तथा सर्वभौमिक सिद्धान्तों के प्रणेता उपनिषेदों के अधिकांश आचार्य क्षत्रिय ही तो थे। कोई आज बता सकता है कि संसार में वह कौनसी जाति है जिसमें अवतरित मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान राम की भारत के आधी से ज्यादा नर-नारी, परमेश्वर के रूप में उसकी उपासना करते हैं तथा कोई बता सकता है कि वह कौनसी जाति है जिसमें पुरूषोत्तम योगी राज भगवान कृष्ण अवतरित हुए हैं। क्या कोई बता सकता है कि वह कौनसी जाति थी जिसके काल में वाल्मीकि रामायण, महाभारत एवं गीता की रचना हुई। क्या कोई बता सकता है कि सर्वप्रथम शान्ति और अंहिसा का पाठ पढ़ाने वाले बौद्व धर्म के प्रवर्तक भगवान बुद्ध और जैन धर्म के प्रवर्तक भगवान महावीर किस जाति के थे। इन सब प्रश्नों का उत्तर है ‘‘क्षत्रिय‘‘।

जिस समय संसार की अन्य जातियाँ अपने पैरों पर लड़खड़ाते हुई उठने का प्रयास कर रही थी, उस समय भारत वर्ष में क्षत्रिय महान सामा्रज्यों के अधिष्ठाता थे:- साहित्य, कला, वैभव, ऐश्वर्य, सुख, शानित के जन्मदाता थे। स्वर्णयुग भारत ज्ञान गुरू भारत और विश्व विजयी भारत के शासक क्षत्रिय ही तो थे। विदेशी आक्रमणकारी यवन, शक, हुर्ण, कुशान जातियों को क्षत्रियों के बाहुबल के सामने नतमस्तक होना पड़ा था। यह क्षत्रिय ही तो थे, जिन्होनें इन आक्रमणकारी जातियों के अस्तित्व तक को भारत में आज ऐतिहासिक खोज बना दिया है। हम उन पूर्वजों को कैसे भूला सकते हैं, जिन्होनें देश भर में शौर्य और तेज के बल से प्रबल राज्यों का निर्माण कर इतिहास में राजपूत काल को अमर कर दिया। इसके बाद इस्लाम धर्म का प्रबल तूफान उठा और भारत की प्राचीन संस्कृतियों, सुव्यवस्थित सामा्रज्यों, दीर्घकालीन व्यवस्थाओं को एक के बाद एक करके धराशायी कर दिया। भारत में इन आक्रमणकारियों का सामना मुख्य रूप से क्षत्रियों को ही करना पड़ा। सामा्रज्य नष्ट हुए, जातियाँ समाप्त हुई, स्वतंत्रता विलुपत हुई पर संघर्ष बन्द नहीं हुआ।

क्या कोई इतिहासकार बता सकता है कि राजपूतों के अतिरिक्त संसार में कोई भी अन्य जाति हुई हैं, जिसने धर्म और सम्मान की रक्षा के लिए सैकडों शाके कियें हो। वे राजपूत नारियों के अतिरिक्त अन्य कोई ऐसी नारियाँ संसार में हुई, जिन्होनें हँसते-हँसते जौहर कर प्राणों की आहूति दी हो व धारा (तलवार) स्नान किया हो। इसका उदाहरण इतिहास में अन्यथा नहीं मिलेगा। इस्लाम धर्म का प्रभाव सैकेड़ों वर्षों तक क्षत्रियों से टकराकर निश्तेज होकर स्वतः शानत हो गया। कितने आश्चर्य की बात है कि क्षत्रिय राज्यों के पश्चात् स्थापित होने वाला मुस्लमानी राज्य क्षत्रिय राज्यों से पहले ही समाप्त हो गया।

महात्मा बुद्व के प्रभाव से अधिकांश क्षत्रियों ने बौद्व धर्म स्वीकार कर लिया और अंहिसा पर विश्वास करने लगे। अशोक महान एक शक्तिशाली राजा के रूप में उदित हुए। उसके बाद महाराजा हर्षवर्धन जो कि एक बैस क्षत्रिय राजा थे, जो शीलादित्य के नाम से प्रसिद्व हुए और एक चक्रवर्ती राजा का रूप लिया। जिनका शासन नर्मदा के उत्तर से नेपाल तक तथा अफगानिस्तान, ईरान से लेकर पूर्व में आसाम तक था और जिसके सम्मुख कोई भी राजा सर नहीं उठा सकता था। इन्होनें भी अन्त में बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। साथ ही अधिकतर क्षत्रिय जाति ने भी बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया और इनके बाद कोई प्रभावशाली उत्तराधिकारी न होने के कारण इनका राज्य छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त हो गया। बौद्व धर्म समाज की शााश्वत आवश्यकता, सुरक्षा के लिए अनुपयोगी सिद्ध हुआ। उसने राष्ट्र की स्वभाविक छात्र शक्ति को निश्तेज, पंगु और सिद्धान्त हीन बना दिया। वह राष्ट्र पर बाहरी आक्रमणों के समय असफल सिद्ध होने लगा। अतैव क्षत्रियों ने छात्र धर्म के प्रतिपादक वैदिक धर्म की पुनः स्थापना की, परन्तु शक्तिशाली केन्द्रिय शासन के अभाव में राजपूत राजा आपस में युद्ध करते-करते छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित हो गए। जिसका लाभ मुस्लिम काल में मुस्लिम आक्रान्ताओं को मिला और क्षत्रिय अपनी शक्ति को क्षीण करते रहे तथा अपने अस्तित्व के लिये लड़ते रहे और भगवान कृष्ण के उपदेशों की पालन करते रहे, परंन्तु संघर्ष को कभी विराम नहीं दिया। भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है कि वास्तव में धर्म युद्ध से बढ़कर कल्याणकारक कत्र्तव्य क्षत्रिय के लिए और कुछ नहीं। 
स्वधर्ममपि चावेक्ष्यण् न विकम्पितुमर्हसि।
धम्र्याद्धि युद्धाच्दे, योऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते।।
और यदि धर्म युद्ध, संगा्रम को क्षत्रिय नहीं करता तो स्वधर्म, कीर्ति को खोकर पाप का भागी होता। 
अथ चेत्वमिमं धम्यं, संगा्रमं न करिष्यसि।
ततः स्वधर्म कीर्ति च, हित्वा पापमवाप्स्य

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