कुलधरा-"एक अनकही कहानी"



।। कुलधरा।।
हाँ मैं कुलधरा हूँ,
वीरान सुनसान।
जो कभी हरा भरा हुआ करता था।।
उजड़ा वीरान हूँ
अब मैं सुनसान हूँ।
पर क्या मैं हमेशा ऐसा ही था।
क्या कभी इन खण्डरों से झांकते
मेरे दर्द का अहसास किया है तुमने
क्या अपनो से बिछड़ने का
जहर पीया है तुमने ।
मेरे जख्म बहुत गहरे है
पर अब उन पर भी अंधेरों के पहरे है।।
तुम को तो रात का अंधेरा डराता है
पर मुझे दिन के उज्जाले में सिहरन महसूस होती है।।
मैं भी कभी चहकता था
रात की रानी की तरह महकता था।।
मेरे  वक्ष स्थल पर भी कभी नव कोंपलें
पल्वित ओर प्रफुलित होती थी।
मेरे कूँचे से नव प्रभात
मन्द मन्द मुस्काती उदित होती थी।।
मैं भी हंसता खेलता मस्ती में झूमता था
इठलाता इतराता गगन को चूमता था।।
फिर वो काली रात भी आयी
जिसकी आज तक सहर का इंतजार है।।
अब कभी ना आने वाली उस
सुनहरी धूप और दोपहर का इंतजार है।।
आज सहम सा जाता हूँ
रात्रि के काले अंधकार में।।
दहलीज पर बैठ कर बाट जो रहा हूँ आज भी
किसी के घर वापस  आने के इंतजार में।।
अजबनी सी आहटों से सहम कर
छिप जाता हूँ खण्डरों के किसी कौने में।।
रात का अंधकार  डराने लगा  है अब तो
निशाचरों के डेरे  आने लगे है अब तो।।
अब तो आश टूट चुकी है अपनो के लौट आने की।
यादें भी धुंधली होने लगी है अब तो।
बूढ़ी जीर्णशीर्ण सी काया
एकाकीपन को ढोने लगी है अब तो।।
यादों की हूक रह रह कर उठती है
फिर शांत हो गरम रेत में दफन हो जाती है कहीं
वीराना ओर सन्नटा रह रह कर
एक सिहरन सी पैदा कर जाता है।
रातें भी डरावनी ओर डराने लगी है अब तो।।
नाम रह गया ,मिटने निशानी लगी है अब तो।।
कुछ अजनबी से कदमो की आहट आती है मगर
शाम होने से पहले वो भी लौट जाती है।
छोड़ कर मुझे अकेला वीराने को वहन करने
फिर पुरानी यादें अंदर तक कचोट जाती है।।
हाँ मैं कुलधरा हूँ,
वीरान सुनसान।
जो कभी हरा भरा हुआ करता था।।

©®
कुं नरपतसिंह पिपराली

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